*"सुधन्वा"* (गीति नाट्य)- सदानंद पॉल
*"सुधन्वा"*(गीति-नाट्य)- सदानंद पॉल
*"सुधन्वा"*(गीति-नाट्य)- सदानंद पॉल
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शंख-लिखित
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शंख, लिखित दो ऋषि भाई थे, हंसध्वज के राज में ,
थे राजगुरु, राज-पंडित औ' शास्त्र, ज्योतिष, काज में ।
वक्ता शंख, संतलेखक लिखित - दोनों थे लिपिबद्धकार,
पर मंथरा - सी कटु - कर्म, कटु - नारद थे निर्बन्धकार।
कथानक , चरित्र - चित्रण और संवाद के प्रेमी थे ,
शैली, देश, काल, उद्देश्य- रूपण, विवाद के प्रेमी थे ।
दुर्बुद्धि आ घेरा गुरु को , आकर सुधन्वा ज़रा विलंब,
अवलंब पर राजा ने , कड़ाही तेल की मँगाया अविलंब ।
डब - डब करते तेल , बनाते जलकर आँच - ताप ,
मृत्यु - कारज कि शंख - लिखित मनतर साँच - जाप ।
कठोर चाम में बाहर , कि अंदर श्वेत कोमल नारिकेल,
परीक्षा लेने को आरद्ध वहाँ , कि गरम है या नहीं - तेल ।
गंभीर नाद, फल हुआ खंड, लगा कपाल में - से ठोकर ,
हुआ चित्त, लेकर धरा पर , संग मरण में - से सोकर ।
अवतार
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सर्व सिद्धांत व नियम का , पालन किया यीशु ,
तू पिता , परमेश्वर के पूत , मैं तेरा शिशु ।
यीशु है प्रभु , पिता ,पूत , नीति - रीति, युद्ध - शान्ति है,
गाँधी औ' मार्क्स - विचार ही, महाबुद्ध - क्रान्ति है ।
मठ - मस्ज़िद या श्री गिरजा में, न रहता मेरा यीशु ,
तू पिता , परमेश्वर के पूत , मैं तेरा शिशु ।
यीशु के लीक पर , या लीक में संत मेंहीं है ,
जगत मिथ्या औ' वर्तमान भी , पर ब्रह्म सही है ।
धन गया , धर्म गया या सबकुछ जाते रहा है ,
आदि का अंत होना , यही तो गुण - धरा है ।
कर्म का मर्म लिए धर्म का संगम अनूठा है ,
सत्यम् वद , पर अविश्वास - कारण झूठा है ।
मुझे तारण भी , दुलारन भी , करते हैं यीशु ,
तू पिता , परमेश्वर के पूत , मैं तेरा शिशु ।
भारतवर्ष
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भारतवासी वीर बनो , ऋषियों की है यह वाणी ,
नेक, बहादुर, धीर बनो , तुम पक्के हिन्दुस्तानी ।
सीता, राधा, सती, सावित्री की, धरती यह न्यारी ,
गंगा, यमुना, सरस्वती - सी , नदियाँ पूज्या प्यारी ।
रामकृष्ण - सम परमज्ञानी का , देश हमारा है ,
विविध धर्म का मर्म - एक सिद्धांत हमारा है ।
अपने आदर्शों पर है , कुर्बान जहाँ जवानी ,
नेक, बहादुर , धीर बनो , तुम पक्के हिन्दुस्तानी ।
वेद, कुरआन, गुरुग्रंथ, बाइबिल का, अद्भुत संगम अपना,
मानव - मानव एक बने , बस - यही हमारा सपना ।
रावण , कंश , हिरण्यक के, गौरव को ढहते देखा ,
आदर्शों की प्रतिमाएँ आयी, पढ़ी है सबने लेखा ।
जन्मे द्रोण, बुद्ध, गांधी और विदुर - से सच्चे ज्ञानी ,
नेक, बहादुर, धीर बनो , तुम पक्के हिन्दुस्तानी ।
कृष्णार्जुन
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गाण्डीव धरा, अर्जुन चला , रथ पर हो सवार ,
अश्वमेध का घोड़ा आगे , पीछे में सैनिक हजार ।
विजयी - विजयी की नाद , बात बहुत - ही पुरातन थी ,
घोड़ा हिन् - हिन् कर ठहरा , चम्पकपुरी भी पुरातन थी ।
अर्जुन के रथ पर अर्जुन केवल, न मातालि, न कृष्ण था ,
सारथी अलग थे अलग - वलग , न काली , न वृष्ण था ।
सामने अड़े थे - एक छोरे , छट्टलवन के अभिमन्यु थे ,
तब कुश-जैसे राम के आगे , वीर-बाँकुरे क्रांतिमन्यु थे ।
सुधन्वा - नाम कहलाता , दिया परिचय उन्होंने ,
सारथी कृष्णचन्द्र को बुला , कहा पुनः - पुनः उन्होंने ।
अर्जुन सोच रहा - जन्मे आगे मेरे , मेढक-सा टर्राटा है,
छोटी मुँह से बड़ी बात कह , परदिल को घबराता है ।
आत्म - स्मरण , कृष्ण - समर्पण, कर छोड़ा एक तीक्ष्ण वाण,
धराशायी हो, कृष्ण दर्शन कर , निकल सुधन्वा का प्राण ।
सुधन्वा
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अंतिम - पात्र प्रवीर सुधन्वा को, धन्ना - धन से कोई मेल नहीं,
सन्तातिथि सेवक होकर भी , भगवान को पाना खेल नहीं ।
दृढ़-प्रतिज्ञ अटल सुधन्वा , द्वार पर भगवान लाना चाहता था,
तप की प्रतिगमन से आज , नहीं मौका छोड़ना चाहता था ।
सुधन्वा जब देखा वहाँ , तो कृष्ण नहीं थे बैठे ,
अर्जुन केवल खड़े - खड़े , गाण्डीव लेकर ऐ ऐंठे ।
कृष्णभक्त सुधन्वा , कृष्ण - दर्शन को ले बड़े उत्सुक ,
ललकार से कृष्ण बुला , हे नर ! अर्जुन से लड़े उपशुक ।
बच तेल कढ़ाही से निकल , सुधन्वा अमर बना था ,
तीन - तीर शपथ लेकर अर्जुन , यह समर बना था ।
त्रितीर गमन को काट दूंगा , ले सुधन्वा कृष्ण - शपथ ,
तीर -द्वय काटकर फिर सुधन्वा, तीसरा गिरा आधा कुपथ ।
अग्र - भाग में कृष्ण हरे ! दर्शन दे - दे चिंगारी ,
कटा ग्रीवा सुधन्वा का , कि जन्मना माँ की कोख ए प्यारी ।
(समाप्त)
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