"*सुधन्वा*" (गीति नाट्य)

"*सुधन्वा*" (गीति नाट्य) -- सदानंद पॉल
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(प्रस्तुत गीति-नाट्य में 12 पात्र 12 आयामों का प्रकटीकरण है, यथा:- कालचक्र, अश्वमेध-यज्ञ, अश्व, महाभारत, काल, चम्पकपुरी, राजा हंसध्वज, शंख-लिखित, अवतार, भारतवर्ष, कृष्णार्जुन और सुधन्वा । ध्यातव्य है, 'सुधन्वा' ऐतिहासिक नायक थे । )
कालचक्र
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सृष्टिपूर्व  मैं शब्द  था,  फिर अंड - पिंड -  ब्रह्माण्ड  बना,
जनक-जननी,  भ्रातृ-बहना, गुरु-शिष्य   औ' खंड  बना ।
हूँ काल मैं, शव-चक्र  समान,  सत्य-तत्व,  रवि-ज्ञान भला,
प्रकाश-तम, जल-तल, पवन-पल, युद्ध-शांत, विद्या-बला ।
परम-ईश्वर, सरंग-समता, पूत - गुड़- गूंग आज्ञाकारी बना,
देव-दनुज, यक्ष-प्रेत-कीट, मृणाल-खग  मनु उपकारी बना।
युग-युग   में  अनलावतार  हो,  जम्बूद्वीप   में  कर्म   बना,
मर्म  के  जाति-खंड पार  हो,  कि   कर्तव्य  राष्ट्रधर्म बना ।
हूँ  संत-पुरुष, अध्यात्म-विज्ञ, तो  पंचपाप  को पूर्ण जला,
अकर्म-शर्म, कर्मांध-दर्प, तांडव - नृत्य - कृत्य स्वर्ण गला ।
हर्ष - उत्कर्ष  हो  सहर्ष  मित्र , अपना  जीवन - संग बना ,
त्याग - सेवा, संतोष - उपासना   का,  क्लीव - अंग  बना ।
रस - अपभ्रंश  में,  गीति - नाट्य -  कवि,  ऊँ - भक्ति बना ,
भक्ति   की   अभिव्यक्ति   से ,  मुक्ति   की   शक्ति   बना  ।
अश्वमेध-यज्ञ
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केवल  घोड़ा  छोड़  कहलाना ,  चक्रवर्ती,  अश्वमेध  नहीं ,
लौट  अश्व ,  उस  यज्ञस्थल  पर,  यह  भी  अश्वमेध  नहीं ।
होता    अश्वमेध   बहु -  अश्व -  मुक्ति  का,   यज्ञ   महान ,
होमादि   में   प्रवाह  पाप  कर , बन  पांडव  अज्ञ - महान ।
त्रेता    में   रामचंद्र  ने   किया,  अश्वमेध   का  दूत - गमन ,
अश्व  -  असुर -  पशुबुद्धि,  पान -  मद्य  औ' द्यूत - जलन ।
जहाँ  राम  ने  माया  सीता  की,  स्वर्ण  -  मूरत बनाया था ,
द्वापरा युद्धिष्ठिर तहाँ पर्वत से ,  रतन-जवाहरात लाया था ।
ऋचाओं  के  मन्त्र - सिद्धि  से , आदि  में   यश-गान  हुआ ,
यंत्र - तंत्र  के परा प्रणाली  से , उषाकाल  का  भान  हुआ ।
विजय   जहां   विशेष  है,  जय   की  महिमा  वहाँ  अपार ,
है    हवनकुण्ड  में  अक्षत  की ,  मंडित  गरिमा  -  संसार ।
हो  आकाशी  पुष्पवर्षा , पर  स्वहितार्थ  जो, अश्वमेध नहीं,
क्षमा ,दया , दीन - रक्षा - पूजा, जीव - सेवा , अश्वमेध सही।
                                                           क्रमशः........

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