*"रामधारी सिंह 'दिवाकर', पंकज चौधरी, शहंशाह आलम की टटकी रचना पढ़ा"*

"रामधारी सिंह 'दिवाकर', पंकज चौधरी, शहंशाह आलम की टटकी रचना पढ़ा"
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तीनों को काफी-काफी बरस हो गए , जानते हुए ! यह अलग बात है, 'पहचान' पैमाना मृत्युपर्यंत भी लोकेटेड नहीं हो पाता !! खैर, तीनों से अच्छी जान-पहचान है, यही यहाँ कहना ज्यादा श्रेयस्कर , समीचीन और प्रासंगिक है !!! डॉ. रामधारी सिंह 'दिवाकर' मेरे सर और पश्चश: वरेण्य मित्र हैं, पंकज चौधरी जी बड़े आत्मीय और शहंशाह आलम जी कभी-कभार मिलन-मित्र हैं !!!! किन्तु तीनों से 'मित्र' शब्द डंके की चोट के साथ उभरते हैं ।
कथाकार दिवाकर जी की कहानी 'देहरी भई बिदेस' पढ़ा, जो 07 नवम्बर '16 के 'आउटलुक' (हिंदी) में छपा है । इस कहानी में माता यशोदा ... मेरी माँ का नाम भी यही है, जो मेरे पास रहती है, परंतु कथा-पुत्र के तरह मैं हरगिज़ नहीं, हो भी नहीं सकता ! कहानी का प्रकाशन टटकी है, किन्तु कथा-विन्यास पुराना है । हाँ, दिवाकर जी रचित कहानी 'गाँठ' से मैं बेहद प्रभावित हुआ था । गाँठ ने जाति के अंदर जाति की गांठें खोल दी... ।
पत्रकार और कवि पंकज चौधरी की चार कविताएं 'पाखी' (अक्टूबर - 2016) में प्रकाशित हुई हैं । चारों कविताएं वीर-बहादुर । 'दिल्ली' कविता सिरफ लांछन की धाँसू प्रवृति लिए है । हाँ, इन कविताओं में 'जाति गिरोह में तब्दील हुआ हिंदी साहित्य' नामक कविता मुझे कशमकश रूप से अभी भी बाँध रखा है । ... औरों को भी यह पढ़नी चाहिये । कविता 'अंधेर नगरी' एकपक्षीय बोलभर है । आज सवर्ण ही नहीं , वरन् पिछड़ा वर्ग भी SC/ST Act. से इतने कुप्रभावित हैं कि जेल-यात्रा सहित बदले की भावना भी इसके सापेक्ष जुड़ गया है । पंकज की पूर्व प्रकाशित लंबी कविता 'उस देश की कथा' से मैं प्रभावित रहा हूँ । इस नाम से इस वीर-बहादुर की प्रथम काव्य-प्रसून भी है । आज ये काव्य-पुरुष मेट्रोपोलिटन शहरों में संघर्षशील पत्रकार के रूप में रेणु और नागार्जुन के संयुक्तावतार में दिख जा सकते हैं !
कवि और राज्यकर्मी श्री शहंशाह आलम की पाँच कविताएं 'हंस' (अक्टूबर - 2016) में शहंशाही अंदाज़ में छपा है । इन पाँच कविताओं में कविता-त्रय 'बढ़ई', उनकी बेटी और छेनी पर लिखी गयी है , दो अन्य कविता में ज़िन्दगी के दो रूप का विवरण है । पहली कविता हँसती ज़िन्दगी के बारे में, तो तीसरी कविता यूँ टरकाती व दरकती ज़िंदगानी के बारे में है ! शहंशाह आलम की कविता 'बढ़ई' में बढ़ईगिरी कम और शहंशाहगिरी ज्यादा है । बढ़ई की बेटी से मिलते हुए वे लकड़हारे की पत्नी तक मिल लेते हैं । खैर, आलम जी की बहुत पहले की कविता 'मेरे पिता का थैला (झोला)' बेहद मार्मिक कविता रही है । संग्रहणीय संग्रह  '......... ऊंटनियों का कोरस' भी हर को पढ़ना चाहिए । मेरे पास इस कविता-संकलन की सुन्दर प्रति है ।
तीनों टटका प्रकाशन पर ये रचनाधर्मिताओं को परिचय ताज़ा कराने के लिए सादर अभिनन्दन !!!


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