*"सुधन्वा"* (गीति-नाट्य)

*"सुधन्वा"* (गीति-नाट्य) -- सदानंद पॉल
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अश्व
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कोई गिनती नहीं,पशु में अश्व की,अश्व असत्य में सत्य है,
सृष्टि काल-ग्रास में, पृथ्वी पर जीवन, सबके सब मर्त्य है ।
रथ  में  जुते  जहाँ  अश्व  है, कि सारथिहीन मन चंचल है,
राजप्रासाद  की  बात  विदाकर, वन  में ग्राम - अंचल है ।
अश्वारोही   चमत्कृत,   पामर - मन   जब  वश   में   हो ,
हस्ती  औ'  वनकेशरी - शक्ति, कि अश्व  जब वश  में हो ।
शांति - अश्म  में  रस्म  देकर, अश्वमन  जीता  जाता  है ,
शान्ति-द्वार  से  स्वर्गद्वार  होकर, हरिद्वार खुल जाता है ।
रूप  अश्व है, गंधहीन  भी, ज्ञानहीन  भी  हो  सकता  है ,
चक्रवर्ती   बननेवाले   अश्व ,  दूसरे   का   उपभोक्ता  है ।
मत्स्य,  कच्छप,  शूकर  और  पशु-ढंग नरसिंहावतार है ,
पशु   है  निश्चित  ही   महान,  ज्ञान - रुपी  दशावतार  है ।
विशाल   अश्व   हूँह  !  अश्व  -  पीठ   पर   चाबुक   पड़े ,
वेदाध्ययन   करते -  करते  ,  कि    ज्ञानी   शम्बूक   मरे ।


महाभारत
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अहम्  वृक्ष  का  फल  रहा,  तब भारत आगे 'महा' लगा ,
महा शब्द,पर महान अलग ,औ' मित्र, भाई, अहा ! सगा !
घृण-पापी  अत्याचारी  कंश,  जहां  रावण  बन  बैठा  था ,
राम  तहाँ  कृष्ण  बन  प्रभाकर, मुक्त  हस्त  ही ऐंठा  था ।
सुदामा  ने   दीनबंधु   बताया,  सांदीपनि   देकर  आशीष ,
खंड - द्वय  जरासंध,  शिशु-द्रथ,  द्रोण-कर्ण  देकर  शीश ।
स्थिर  युद्ध  में धन-शासन  ने, कटु  वाक्य-व्यवहार  किया,
भीमसेन  ने तब अंध-पुत्र औ' हृदयरोगी का आहार किया।
मिले  बधाई  और  मिठाई,  गांडीव  और  पाञ्चजन्य को,
कृष्ण अकेला मार गिराये, क्या, कौरवों के भारी सैन्य को ।
अंत  महाभारत - समर,  जीवित  शेष , रहने  लगे  उदास ,
बैकुंठ-शोक पर कृष्ण के , चिंतित रहने लगे पांडव - दास ।
ग्रहण कर भीष्मक-विचार, बन इठलाये  गुरु-जगत व्यास ,
करे कौन-से पुण्य कर्म हो, कि सत्य-स्वर्ग की बँधेगी आश ।
              
                                               ........क्रमशः...........

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