*"सुधन्वा"* (गीति-नाट्य)
*"सुधन्वा"* (गीति-नाट्य) -- सदानंद पॉल
------------------------------------------------
अश्व
-----
कोई गिनती नहीं,पशु में अश्व की,अश्व असत्य में सत्य है,
सृष्टि काल-ग्रास में, पृथ्वी पर जीवन, सबके सब मर्त्य है ।
रथ में जुते जहाँ अश्व है, कि सारथिहीन मन चंचल है,
राजप्रासाद की बात विदाकर, वन में ग्राम - अंचल है ।
अश्वारोही चमत्कृत, पामर - मन जब वश में हो ,
हस्ती औ' वनकेशरी - शक्ति, कि अश्व जब वश में हो ।
शांति - अश्म में रस्म देकर, अश्वमन जीता जाता है ,
शान्ति-द्वार से स्वर्गद्वार होकर, हरिद्वार खुल जाता है ।
रूप अश्व है, गंधहीन भी, ज्ञानहीन भी हो सकता है ,
चक्रवर्ती बननेवाले अश्व , दूसरे का उपभोक्ता है ।
मत्स्य, कच्छप, शूकर और पशु-ढंग नरसिंहावतार है ,
पशु है निश्चित ही महान, ज्ञान - रुपी दशावतार है ।
विशाल अश्व हूँह ! अश्व - पीठ पर चाबुक पड़े ,
वेदाध्ययन करते - करते , कि ज्ञानी शम्बूक मरे ।
------------------------------------------------
अश्व
-----
कोई गिनती नहीं,पशु में अश्व की,अश्व असत्य में सत्य है,
सृष्टि काल-ग्रास में, पृथ्वी पर जीवन, सबके सब मर्त्य है ।
रथ में जुते जहाँ अश्व है, कि सारथिहीन मन चंचल है,
राजप्रासाद की बात विदाकर, वन में ग्राम - अंचल है ।
अश्वारोही चमत्कृत, पामर - मन जब वश में हो ,
हस्ती औ' वनकेशरी - शक्ति, कि अश्व जब वश में हो ।
शांति - अश्म में रस्म देकर, अश्वमन जीता जाता है ,
शान्ति-द्वार से स्वर्गद्वार होकर, हरिद्वार खुल जाता है ।
रूप अश्व है, गंधहीन भी, ज्ञानहीन भी हो सकता है ,
चक्रवर्ती बननेवाले अश्व , दूसरे का उपभोक्ता है ।
मत्स्य, कच्छप, शूकर और पशु-ढंग नरसिंहावतार है ,
पशु है निश्चित ही महान, ज्ञान - रुपी दशावतार है ।
विशाल अश्व हूँह ! अश्व - पीठ पर चाबुक पड़े ,
वेदाध्ययन करते - करते , कि ज्ञानी शम्बूक मरे ।
महाभारत
------------
अहम् वृक्ष का फल रहा, तब भारत आगे 'महा' लगा ,
महा शब्द,पर महान अलग ,औ' मित्र, भाई, अहा ! सगा !
घृण-पापी अत्याचारी कंश, जहां रावण बन बैठा था ,
राम तहाँ कृष्ण बन प्रभाकर, मुक्त हस्त ही ऐंठा था ।
सुदामा ने दीनबंधु बताया, सांदीपनि देकर आशीष ,
खंड - द्वय जरासंध, शिशु-द्रथ, द्रोण-कर्ण देकर शीश ।
स्थिर युद्ध में धन-शासन ने, कटु वाक्य-व्यवहार किया,
भीमसेन ने तब अंध-पुत्र औ' हृदयरोगी का आहार किया।
मिले बधाई और मिठाई, गांडीव और पाञ्चजन्य को,
कृष्ण अकेला मार गिराये, क्या, कौरवों के भारी सैन्य को ।
अंत महाभारत - समर, जीवित शेष , रहने लगे उदास ,
बैकुंठ-शोक पर कृष्ण के , चिंतित रहने लगे पांडव - दास ।
ग्रहण कर भीष्मक-विचार, बन इठलाये गुरु-जगत व्यास ,
करे कौन-से पुण्य कर्म हो, कि सत्य-स्वर्ग की बँधेगी आश ।
........क्रमशः...........
------------
अहम् वृक्ष का फल रहा, तब भारत आगे 'महा' लगा ,
महा शब्द,पर महान अलग ,औ' मित्र, भाई, अहा ! सगा !
घृण-पापी अत्याचारी कंश, जहां रावण बन बैठा था ,
राम तहाँ कृष्ण बन प्रभाकर, मुक्त हस्त ही ऐंठा था ।
सुदामा ने दीनबंधु बताया, सांदीपनि देकर आशीष ,
खंड - द्वय जरासंध, शिशु-द्रथ, द्रोण-कर्ण देकर शीश ।
स्थिर युद्ध में धन-शासन ने, कटु वाक्य-व्यवहार किया,
भीमसेन ने तब अंध-पुत्र औ' हृदयरोगी का आहार किया।
मिले बधाई और मिठाई, गांडीव और पाञ्चजन्य को,
कृष्ण अकेला मार गिराये, क्या, कौरवों के भारी सैन्य को ।
अंत महाभारत - समर, जीवित शेष , रहने लगे उदास ,
बैकुंठ-शोक पर कृष्ण के , चिंतित रहने लगे पांडव - दास ।
ग्रहण कर भीष्मक-विचार, बन इठलाये गुरु-जगत व्यास ,
करे कौन-से पुण्य कर्म हो, कि सत्य-स्वर्ग की बँधेगी आश ।
........क्रमशः...........
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें